मुजफ्फरपुर इंसेफ्लाइटिस से सैंकड़ों बच्चों की मौत, पाकिस्तान जिम्मेवार, नहीं हुआ एसओपी का पालन
द एक्सपोज़ एक्सप्रेस.
एईएस(एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम) जिसे मुजफ्फरपुर इंसेफ्लाइटिस और चमकी बुखार भी कहा जाता है, बिहार के लिए नया नहीं है। इससे साल 2012, 2013, 2014, 2015, 2016, 2017, 2018 में क्रमशः 424, 222, 379, 90, 103, 54 और 33 बच्चों की मौत हो हुई। सरकारी अस्पतालों से मिले आंकड़ों के अनुसार इस साल मुजफ्फरपुर में इंसेफेलाइटिस से करीब 150 बच्चों की मौत हो चुकी है। करीब 400 इलाजरत हैं। यह सरकारी आंकड़ा है, असल आंकड़ा कई गुणा ज्यादा होगा।
हर साल मानसून से पहले शुरु होने वाले इस घटना को रोकने के लिए साल 2015 में बिहार सरकार ने यूनिसेफ के साथ एसओपी(स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिज्योर) साइन किया था, जिसके तहत "आशा" को गांव में घूमकर इस बिमारी से ग्रसित बच्चों की पहचान कर उन्हें ओआरएस देना और रात को भूखे पेट नहीं सोने की सलाह देना था। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्रों में सुविधाओं को बढ़ाने का भी प्रावधान रखा गया था। इसके अच्छे नतीजे मिले थे। बच्चों की मौत की संख्या में 2015 से 2018 तक गिरावट हुई थी। लेकिन इस साल मामला आउट ऑफ कंट्रोल हो चुका है। बंपर वोट से सत्ता में आई सरकार को गरीब मासूमों की कोई चिंता नहीं रही। जिसका नतीजा हुआ कि एसओपी को इस साल ठीक से लागू नहीं किया गया। आशा को ग्लूकॉज काफी कम मात्रा में दी गई और लोगों को जागरुक करने का दबाव भी उनपर नहीं बनाया गया।
अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर कहा जाए पाकिस्तान के कारण बिहार के करीब 150 बच्चों की जान चली गई। जनता पाकिस्तान की बर्बादी चाहती है। सरकार भी कुछ दिन पाकिस्तान के खिलाफ सख्ती दिखाकर जनता को खुश कर देती है। इसके बाद सरकार की जिम्मेदारियों की इतिश्री हो जाती है और सारे मुद्दे गौण। राष्ट्रवाद के मुद्दे हुए चुनाव में स्वास्थ्य की चर्चा तक नहीं हुई। जब जनता को ही स्वास्थ्य जैसे मुद्दे की चिंता नहीं फिर सरकार इसमें अपना ध्यान क्यों लगाए। राष्ट्रवाद के इस मुद्दे को लेकर ही प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव से पहले दसियों बार बिहार की यात्रा की थी, लेकिन बच्चों की मौत पर बिहार आना तो दूर उन्होंने एक ट्विट भी नहीं किया। क्या गरीब बच्चे राष्ट्रवाद के दायरे में नहीं आते? अगर स्थापित किए जा रहे नए मानकों में गरीबों का राष्ट्रवाद में स्थान नहीं है तो उखाड़कर फेंक देना चाहिए ऐसे राष्ट्रवाद को।
चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों को देखने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन बिहार गएं। उन्होंने इस बार भी वही सब वादा किया जो साल 2014 में इसी पद पर रहते हुए उन्होंने किया था। साल 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री रहते उन्होंने मुजफ्फरपुर में 100 बेड का अस्पताल, कई वायरोलॉजिकल लैब, एक एडवांस रिसर्च सेंटर और बच्चों के 100% टीकाकरण की बात कही थी। घोषणा, घोषणा बनकर रह गया। यथार्थ की शक्ल नहीं लें पाया। केंद्रीय मंत्री के साथ केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे और बीजेपी कोटे से बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे भी थे। बच्चों की मौत से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दे के प्रेस कांफ्रेस के दौरान चौबे जहां झपकी ले रहे थे वहीं पांडे पत्रकारों से इंडिया-पाकिस्तान मैच का स्कोर पूछ रहे थे। यह है राष्ट्रवाद का रंग। इनसे भी बड़े राष्ट्रवादी गृह मंत्री अमित शाह पाकिस्तान पर भारत की जीत को एक और सर्जिकल स्ट्राइक बता रहे थे। लेकिन मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार पर सर्जिकल स्ट्राइक कैसे हो इसका फुटप्रिंट शायद उनके पास नहीं।
इंसेफ्लाइटिस कई प्रकार के होते हैं। साल 2014 में विभिन्न प्रकार की इंसेफ्लाइटिस से जुड़े 60 जिलों की पहचान की गई थी और सघन अभियान चलाकर इंसेफ्लाइटिस को खत्म करने की बात कही गई थी, लेकिन कमिटी गठन के बाद आज तक एक भी मीटिंग नहीं हुई।
बच्चों की मौत का कारण कुपोषण और खाली पेट लीची का सेवन बताया जा रहा है। अस्पताल पहुंचने वाले 80% से ज्यादा बच्चों के अभिभावकों ने खाली पेट लीची खाने की बात स्वीकारी है। लीची तोड़ने का काम भोर के समय होता है। कुपोषण के शिकार बच्चे खाली पेट ही अपने मां-बाप के साथ लीची बगानों में चले जाते हैं और लीची खाने लगते हैं। कुपोषित बच्चों में पहले ही ग्लूकोज की कमी होती है। रात के समय खाना नहीं खाने से ग्लूकोज की स्तर में और भी कमी आ जाती है। लीची में ग्लूकोज को कम करने वाले टॉजिक(विष) होते हैं। कच्ची लीची में ऐसे टॉजिक की मात्रा दोगुनी होती है। खाली पेट बच्चे जब इस लीची को खाते हैं तो दिमाग को पर्याप्त मात्रा में ग्लूकोज की सप्लाई नहीं हो पाती और बच्चे चमकी की चपेट में आकर मृत्यू को प्राप्त हो जाते हैं।
समझना आसान है कि चमकी बुखार के सभी कारण गरीबी से जुड़े हुए हैं। गरीबी की बात आती है तो ध्यान दलित-पिछड़ों पर जा रुकती है। ऐसा नहीं की ऊंची जाति के लोग गरीब नहीं, लेकिन उनके गरीब होने का प्रतिशत काफी कम है। "साइंस डायरेक्ट" ने 135 केसों का अध्ययन कर मुजफ्फरपुर इंसेफ्लाइटिस के निर्धारक तत्वों पर लेख छापा है। इसमें बताया गया है कि 135 मृत बच्चों में से 123 दलित-पिछड़े थे तथा 114 के अभिभावक खेतीबाड़ी और मजदूरी करते हैं।
प्रधानमंत्री का कहना है कि वह इसी वर्ग से आते हैं। हर दिन यही बात दोहरा कर इस वर्ग के वोट से ही उन्होंने दुबारा सत्ता पर कब्जा किया है। इसके बावजूद यह वर्ग उनके लिए अवांक्षित है और उनके राष्ट्रवाद के दायरे में नहीं आते हैं।
जागरुकता से चमकी बुखार को आसानी से काबू किया जा सकता है, लेकिन दलित-पिछड़े-गरीबों की फिक्र किसे?
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